स्वामी विवेकानन्द : जीवन परिचय


स्वामी विवेकानन्द
पूरा नाम       स्वामी विवेकानन्द
जन्म       12 जनवरी, 1863
जन्म भूमि   कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता)
मृत्यु       4 जुलाई, 1902
मृत्यु स्थान  रामकृष्ण मठ, बेलूर
अविभावक      विश्वनाथदत्त (पिता)
गुरु     रामकृष्ण परमहंस
मुख्य रचनाएँ  योग, राजयोग, ज्ञानयोग
शिक्षा     स्नातक
विद्यालय     कलकत्ता विश्वविद्यालय
नागरिकता     भारतीय
स्वामी विवेकानन्द (जन्म- 12 जनवरी, 1863 कलकत्ता - मृत्यु- 4 जुलाई, 1902 बेलूर) एक युवा संन्यासी के रूप में भारतीय संस्कृति की सुगन्ध विदेशों में बिखरने वाले साहित्य, दर्शन और इतिहास के प्रकाण्ड विद्वान थे। विवेकानन्द जी का मूल नाम 'नरेंद्रनाथ दत्त' था, जो कि आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुए। युगांतरकारी आध्यात्मिक गुरु, जिन्होंने हिन्दू धर्म को गतिशील तथा व्यवहारिक बनाया और सुदृढ़ सभ्यता के निर्माण के लिए आधुनिक मानव से पश्चिमी विज्ञान व भौतिकवाद को भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से जोड़ने का आग्रह किया। कलकत्ता के एक कुलीन परिवार में जन्मे नरेंद्रनाथ चिंतन व क्रम, भक्ति व तार्किकता, भौतिक एवं बौद्धिक श्रेष्ठता के साथ-साथ संगीत की प्रतिभा का एक विलक्षण संयोग थे। भारत में स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिवस को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।
 जीवन परिचय
श्री विश्वनाथदत्त पाश्चात्य सभ्यता में आस्था रखने वाले व्यक्ति थे। श्री विश्वनाथदत्त के घर में उत्पन्न होने वाला उनका पुत्र नरेन्द्रदत्त पाश्चात्य जगत को भारतीय तत्त्वज्ञान का सन्देश सुनाने वाला महान विश्व-गुरु बना। स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 में कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता), भारत में हुआ। रोमा रोलाँ ने नरेन्द्रदत्त (भावी विवेकानन्द) के सम्बन्ध में ठीक कहा है- 'उनका बचपन और युवावस्था के बीच का काल योरोप के पुनरूज्जीवन-युग के किसी कलाकार राजपुत्र के जीवन-प्रभात का स्मरण दिलाता है।' बचपन से ही नरेन्द्र में आध्यात्मिक पिपासा थी। सन् 1884 में पिता की मृत्यु के पश्चात परिवार के भरण-पोषण का भार भी उन्हीं पर पड़ा। स्वामी विवेकानन्द ग़रीब परिवार के थे। नरेन्द्र का विवाह नहीं हुआ था। दुर्बल आर्थिक स्थिति में स्वयं भूखे रहकर अतिथियों के सत्कार की गौरव-गाथा उनके जीवन का उज्ज्वल अध्याय है। नरेन्द्र की प्रतिभा अपूर्व थी। उन्होंने बचपन में ही दर्शनों का अध्ययन कर लिया। ब्रह्मसमाज में भी वे गये, पर वहाँ उनकी जिज्ञासा शान्त न हुई। प्रखर बुद्धि साधना में समाधान न पाकर नास्तिक हो चली।
 शिक्षा
1879 में 16 वर्ष की आयु में उन्होंने कलकत्ता से एंट्रेस की परीक्षा पास की। अपने शिक्षा काल में वे सर्वाधिक लोकप्रिय और एक जिज्ञासु छात्र थे। किन्तु हर्बर्ट स्पेंसर (HERBERT SPENCER) के नास्तिकवाद का उन पर पूरा प्रभाव था। उन्होंने से स्नातक उपाधि प्राप्त की और ब्रह्म समाज में शामिल हुए, जो हिन्दू धर्म में सुधार लाने तथा उसे आधुनिक बनाने का प्रयास कर रहा था।
रामकृष्ण से भेंट
युवावस्था में उन्हें पाश्चात्य दार्शनिकों के निरीश्वर भौतिकवाद तथा ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ भारतीय विश्वास के कारण गहरे द्वंद्व से गुज़रना पड़ा। परमहंस जी जैसे जौहरी ने रत्न को परखा। उन दिव्य महापुरुष के स्पर्श ने नरेन्द्र को बदल दिया। इसी समय उनकी भेंट अपने गुरु रामकृष्ण से हुई, जिन्होंने पहले उन्हें विश्वास दिलाया कि ईश्वर वास्तव में है और मनुष्य ईश्वर को पा सकता है। रामकृष्ण ने सर्वव्यापी परमसत्य के रूप में ईश्वर की सर्वोच्च अनुभूति पाने में नरेंद्र का मार्गदर्शन किया और उन्हें शिक्षा दी कि सेवा कभी दान नहीं, बल्कि सारी मानवता में निहित ईश्वर की सचेतन आराधना होनी चाहिए। यह उपदेश विवेकानंद के जीवन का प्रमुख दर्शन बन गया। कहा जाता है कि उस शक्तिपात के कारण कुछ दिनों तक नरेन्द्र उन्मत्त-से रहे। उन्हें गुरु ने आत्मदर्शन करा दिया था। पचीस वर्ष की अवस्था में नरेन्द्रदत्त ने काषायवस्त्र धारण किये। अपने गुरु से प्रेरित होकर नरेंद्रनाथ ने संन्यासी जीवन बिताने की दीक्षा ली और स्वामी विवेकानंद के रूप में जाने गए। जीवन के आलोक को जगत के अन्धकार में भटकते प्राणियों के समक्ष उन्हें उपस्थित करना था। स्वामी विवेकानंद ने पैदल ही पूरे भारत की यात्रा की।
देश का पुनर्निर्माण
रामकृष्ण की मृत्यु के बाद उन्होंने स्वयं को हिमालय में चिंतनरूपी आनंद सागर में डुबाने की चेष्टा की, लेकिन जल्दी ही वह इसे त्यागकर भारत की कारुणिक निर्धनता से साक्षात्कार करने और देश के पुनर्निर्माण के लिए समूचे भारत में भ्रमण पर निकल पड़े। इस दौरान उन्हें कई दिनों तक भूखे भी रहना पड़ा। इन छ्ह वर्षों के भ्रमण काल में वह राजाओं और दलितों, दोनों के अतिथि रहे। उनकी यह महान यात्रा कन्याकुमारी में समाप्त हुई, जहाँ ध्यानमग्न विवेकानंद को यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की ओर रूझान वाले नए भारतीय वैरागियों और सभी आत्माओं, विशेषकर जनसाधारण की सुप्त दिव्यता के जागरण से ही इस मृतप्राय देश में प्राणों का संचार किया जा सकता है। भारत के पुनर्निर्माण के प्रति उनके लगाव ने ही उन्हें अंततः 1893 में शिकागो धर्म संसद में जाने के लिए प्रेरित किया, जहाँ वह बिना आमंत्रण के गए थे, परिषद में उनके प्रवेश की अनुमति मिलनी ही कठिन हो गयी। उनको समय न मिले, इसका भरपूर प्रयत्न किया गया। भला, पराधीन भारत क्या सन्देश देगा- योरोपीय वर्ग को तो भारत के नाम से ही घृणा थी। एक अमेरिकन प्रोफेसर के उद्योग से किसी प्रकार समय मिला और 11 सितंबर सन् 1893 के उस दिन उनके अलौकिक तत्वज्ञान ने पाश्चात्य जगत को चौंका दिया। अमेरिका ने स्वीकार कर लिया कि वस्तुत: भारत ही जगद्गुरु था और रहेगा। स्वामी विवेकानन्द ने वहाँ भारत और हिन्दू धर्म की भव्यता स्थापित करके ज़बरदस्त प्रभाव छोड़ा। 'सिस्टर्स ऐंड ब्रदर्स ऑफ़ अमेरिका' (अमेरिकी बहनों और भाइयों) के संबोधन के साथ अपने भाषण की शुरुआत करते ही 7000 प्रतिनिधियों ने तालियों के साथ उनका स्वागत किया। विवेकानंद ने वहाँ एकत्र लोगों को सभी मानवों की अनिवार्य दिव्यता के प्राचीन वेदांतिक संदेश और सभी धर्मों में निहित एकता से परिचित कराया। सन् 1896 तक वे अमेरिका रहे। उन्हीं का व्यक्तित्व था, जिसने भारत एवं हिन्दू-धर्म के गौरव को प्रथम बार विदेशों में जाग्रत किया।
    धर्म एवं तत्वज्ञान के समान भारतीय स्वतन्त्रता की प्रेरणा का भी उन्होंने नेतृत्व किया। स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे- 'मैं कोई तत्ववेत्ता नहीं हूँ। न तो संत या दार्शनिक ही हूँ। मैं तो ग़रीब हूँ और ग़रीबों का अनन्य भक्त हूँ। मैं तो सच्चा महात्मा उसे ही कहूँगा, जिसका हृदय ग़रीबों के लिये तड़पता हो।'
स्वामी विवेकानन्द
पाँच वर्षों से अधिक समय तक उन्होंने अमेरिका के विभिन्न नगरों, लंदन और पेरिस में व्यापक व्याख्यान दिए। उन्होंने जर्मनी, रूस और पूर्वी यूरोप की भी यात्राएं कीं। हर जगह उन्होंने वेदांत के संदेश का प्रचार किया। कुछ अवसरों पर वह चरम अवस्था में पहुँच जाते थे (यहाँ तक कि पश्चिम के भीड़ भरे सभागारों में भी)। यहाँ उन्होंने समर्पित शिष्यों का समूह बनाया और उनमें से कुछ को अमेरिका के 'थाउज़ेंड आइलैंड पार्क' में आध्यात्मिक जीवन में प्रशिक्षित किया। उनके कुछ शिष्यों ने उनका भारत तक अनुसरण किया।
वेदांत धर्म
1897 में जब विवेकानंद भारत लौटे, तो राष्ट्र ने अभूतपूर्व उत्साह के साथ उनका स्वागत किया और उनके द्वारा दिए गए वेदांत के मानवतावादी, गतिशील तथा प्रायोगिक संदेश ने हज़ारों लोगों को प्रभावित किया। स्वामी विवेकानन्द ने सदियों के आलस्य को त्यागने के लिए भारतीयों को प्रेरित किया और उन्हें विश्व नेता के रूप में नए आत्मविश्वास के साथ उठ खड़े होने तथा दलितों व महिलाओं को शिक्षित करने तथा उनके उत्थान के माध्यम से देश को ऊपर उठाने का संदेश दिया। स्वामी विवेकानन्द ने घोषणा की कि सभी कार्यों और सेवाओं को मानव में पूर्णतः व्याप्त ईश्वर की परम आराधना बनाकर वेदांत धर्म को व्यवहारिक बनाया जाना ज़रूरी है। वह चाहते है कि भारत पश्चिमी देशों में भी आध्यात्मिकता का प्रसार करे। स्वामी विवेकानन्द ने घोषणा की कि सिर्फ़ अद्वैत वेदांत के आधार पर ही विज्ञान और धर्म साथ-साथ चल सकते हैं, क्योंकि इसके मूल में अवैयक्तिक ईश्वर की आधारभूत धारणा, सीमा के अंदर निहित अनंत और ब्रह्मांड में उपस्थित सभी वस्तुओं के पारस्परिक मौलिक संबंध की दृष्टि है। उन्होंने सभ्यता को मनुष्य में दिव्यता के प्रतिरूप के तौर पर परिभाषित किया और यह भविष्यवाणी भी की कि एक दिन पश्चिम जीवन की अनिवार्य दिव्यता के वेदांतिक सिद्धान्त की ओर आकर्षित होगा। विवेकानंद के संदेश ने पश्चिम के विशिष्ट बौद्धिकों, जैसे विलियम जेम्स, निकोलस टेसला, अभिनेत्री सारा बर्नहार्ड और मादाम एम्मा काल्व, एंग्लिकन चर्च, लंदन के धार्मिक चिंतन रेवरेंड कैनन विल्वरफ़ोर्स, और रेवरेंड होवीस तथा सर पैट्रिक गेडेस, हाइसिंथ लॉयसन, सर हाइरैम नैक्सिम, नेल्सन रॉकफ़ेलर, लिओ टॉल्स्टॉय व रोम्यां रोलां को भी प्रभावित किया। अंग्रेज़ भारतविद ए. एल बाशम ने विवेकानंद को इतिहास का पहला व्यक्ति बताया, जिन्होंने पूर्व की आध्यात्मिक संस्कृति के मित्रतापूर्ण प्रत्युत्तर का आरंभ किया और उन्हें आधुनिक विश्व को आकार देने वाला घोषित किया।

मसीहा के रूप में
अरबिंदो घोष, सुभाषचंद्र बोस, सर जमशेदजी टाटा, रबींद्रनाथ टैगोर तथा महात्मा गांधी जैसे महान व्यक्तियों ने स्वामी विवेकानन्द को भारत की आत्मा को जागृत करने वाला और भारतीय राष्ट्रवाद के मसीहा के रूप में देखा। विवेकानंद 'सार्वभौमिकता' के मसीहा के रूप में उभरे। स्वामी विवेकानन्द पहले अंतरराष्ट्रवादी थे, जिन्होंने 'लीग ऑफ़ नेशन्स' के जन्म से भी पहले वर्ष 1897 में अंतर्राष्ट्रीय संगठनों,
विवेकानन्द रॉक मेमोरियल, कन्याकुमारी
Vivekananda Rock Memorial, Kanyakumari
गठबंधनों और क़ानूनों का आह्वान किया, जिससे राष्ट्रों के बीच समन्वय स्थापित किया जा सके।
स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित
स्वामी विवेकानन्द

विवेकानंद ने 1 मई 1897 में कलकत्ता में रामकृष्ण मिशन और 9 दिसंबर 1898 को कलकत्ता के निकट गंगा नदी के किनारे बेलूर में रामकृष्ण मठ की स्थापना की। उनके अंग्रेज़ अनुयायी कैप्टन सर्वियर और उनकी पत्नी ने हिमालय में 1899 में 'मायावती अद्वैत आश्रम' खोला। इसे सार्वभौमिक चेतना के अद्वैत दृष्टिकोण के एक अद्वितीय संस्थान के रूप में शुरू किया गया और विवेकानंद की इच्छानुसार, इसे उनके पूर्वी और पश्चिमी अनुयायियों का सम्मिलन केंद्र बनाया गया। विवेकानंद ने बेलूर में एक दृश्य प्रतीक के रूप में सभी प्रमुख धर्मों के वास्तुशास्त्र के समन्वय पर आधारित रामकृष्ण मंदिर के भावी आकार की रूपरेखा भी बनाई, जिसे 1937 में उनके साथी शिष्यों ने पूरा किया।
ग्रन्थों की रचना

'योग', 'राजयोग' तथा 'ज्ञानयोग' जैसे ग्रंथों की रचना करके विवेकानन्द ने युवा जगत को एक नई राह दिखाई है, जिसका प्रभाव जनमानस पर युगों-युगों तक छाया रहेगा। कन्याकुमारी में निर्मित उनका स्मारक आज भी उनकी महानता की कहानी कह रहा है।
मृत्यु

उनके ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्चभर में है। जीवन के अंतिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा "एक और विवेकानंद चाहिए, यह समझने के लिए कि इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है।" प्रत्यदर्शियों के अनुसार जीवन के अंतिम दिन भी उन्होंने अपने 'ध्यान' करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो तीन घंटे ध्यान किया। उन्हें दमा और शर्करा के अतिरिक्त अन्य शारीरिक व्याधियों ने घेर रक्खा था। उन्होंने कहा भी था, 'यह बीमारियाँ मुझे चालीस वर्ष के आयु भी पार नहीं करने देंगी।' 4 जुलाई, 1902 को बेलूर में रामकृष्ण मठ में उन्होंने ध्यानमग्न अवस्था में महासमाधि धारण कर प्राण त्याग दिए। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मंदिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानंद तथा उनके गुरु रामकृष्ण के संदेशों के प्रचार के लिए 130 से अधिक केंद्रों की स्थापना की।
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अंधविश्वासी न बनो : स्वामी विवेकानंद
यह विलक्षण बालक काफी कम उम्र से ही भय अथवा अंधविश्वास न मानता था। उनके बचपन का एक अन्य खेल था, पड़ोसी के घर चम्पा के पेड़ पर चढ़कर फूल तोड़ना और ऊधम मचाना। पेड़ के मालिक ने अपनी डाँट-फटकार से कोई लाभ न होता देख, एक दिन नरेन के साथियों से अत्यंत गंभीरतापूर्वक कहा कि उस पेड़ पर एक ब्रह्मदैत्य निवास करता है और उस पर सभी बच्चे भयभीत हो गए और उस पेड़ से दूर-दूर रहने लगे। परंतु नरेन उन्हें समझा-बुझाकर पुन: वहीं ले आए और पहले के समान ही पेड़ पर चढ़कर खेलने लगे और शैतानीपूर्वक वृक्ष की कुछ डालियाँ भी तोड़ डालीं। फिर वे अपने साथियों की ओर उन्मुख होकर बोले - 'तुम लोग भी कैसे गधे हो। देखो मेरी गरदन कैसी सही सलामत है। बूढ़े बाबा की बात बिल्कुल झूठी है। दूसरे लोग जो कुछ भी कहते हैं, उसकी जाँच किए बिना कभी भी विश्वास न करना।'

सत्य की स्वयं ही उपलब्धि करो
ये सरल तथा स्पष्ट शब्द जगत के प्रति उनके भावी संदेश का संकेत देते हैं। परवर्ती काल में अपने व्याख्‍यानों में वे प्राय: ही कहा करते थे - 'किसी बात पर सिर्फ इसी कारण विश्वास न कर लो कि वह किसी ग्रंथ में लिखी है। किसी चीज पर इसलिए विश्वास न कर लो कि किसी व्यक्ति ने उसे सत्य कहा है। किसी बात पर सिर्फ इस कारण भी विश्वास न करना कि वे परंपरा से चली आ रही है। अपने लिए सत्य की स्वयं ही उपलब्धि करो। उसे तर्क की कसौटी पर कसो। इसी को अनुभ‍ूति कहते हैं।

नीचे लिखी घटना उनके साहस एवं प्रत्युत्पन्नमति का एक अच्‍छा उदाहरण है। व्यायामशाला में एक दिन वे एक भारी झूला खड़ा करना चाहते थे। उन्होंने आसपास उपस्थित कुछ लोगों से इसमें सहायता करने का अनुरोध किया। हाथ बटाने वालों में एक अँगरेज नाविक भी थे। झूला खड़ा करते समय उसका एक भाग नाविक के सिर पर गिर पड़ा और वे चोट खाकर अचेत हो गए।

बाकी सभी लोग उन्हें मृत समझकर पुलिस के भय से रफूचक्कर हो गए परंतु नरेन ने अपने वस्त्र का एक टुकड़ा फाड़कर नाविक के चोट पर पट्‍टी बाँधी, उनके चेहरे पर पानी के छींटे दिए और धीरे-धीरे उन्हें होश में ले आए। तत्पश्चात घायल नाविक को अपने पड़ोस के विद्यालय भवन में लाकर एक सप्ताह तक उनकी सेवा की। उनके स्वस्थ हो जाने के पश्चात नरेन ने अपने मित्रों से थोड़ा धन संग्रह किया और नाविक को सौंपकर उन्हें विदाई दी।

बचपन के इन क्रीड़ा-कौतुकपूर्ण जीवन के बीच भी नरेन के हृदय में परिव्राजक संन्यासी जीवन के प्रति आकर्षण बना रहा था। अपने हथेली पर की एक रेखा विशेष की ओर संकेत करते हुए वे अपने मित्रों से कहा करते - 'मैं अवश्य ही संन्यासी बनूँगा, एक हस्तरेखाविद्‍ ने बताया है।'

किशोरावस्था में प्रवेश करते हुए नरेन के स्वभाव में अब कुछ विशेष परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगे थे। बौद्धिक जीवन की ओर उनका झुकाव बढ़ गया। अब वे इतिहास एवं साहित्य के महत्वपूर्ण ग्रंथों का अध्ययन करने लगे, समाचार पत्र पढ़ने लगे और सार्वजनिक सभाओं में जाने लगे। संगीत उनके दिल बहलाव का प्रमुख साधन बन गया। उनका मत था कि संगीत के माध्यम से उदात्त भावों की अभिव्यक्ति होनी चाहिए और जिससे गायक की भी भावनाएँ जाग्रत हो उठें।

पंद्रह वर्ष की आयु में उन्हें प्रथम आध्यात्मिक अनुभूति हुई। वे अपने परिवार के साथ मध्यप्रदेश के रायपुर नगर को जा रहे थे। यात्रा का कुछ भाग बैलगाड़ी में तय किया जा रहा था। उस दिन शीतल और मंद वायु प्रवाहित हो रही थी, वृक्ष और लताएँ रंग-बिरंगे पत्र-पुष्पों से झुकी जा रही थीं, तरह-तरह के पक्षी कलरव कर रहे थे। चलते-चलते बैलगाड़ी एक ऐसी सँकरी घाटी के समीप पहुँची, जहाँ दो ऊँचे पर्वत शिखर मानो एक दूसरे को चूम रहे थे। मुग्ध होकर इन पर्वतों की ओर निहालते हुए नरेन ने देखा कि पर्वत के एक दरार से धरती तक एक विशाल मधुचक्र लटक रहा है। यह अद्‍भुत अपूर्व दृश्य देखकर उनका मन ईश्वर विभोर हो उठा और वे बाह्यसंज्ञाशून्य होकर काफी देर तक गाड़ी में ही पड़े रहे। बाह्य चेतना लौटने के पश्चात भी उनके मन में आनंद की हिलोरें उठ रही थीं।

यहाँ पर नरेन के मन की एक दूसरी रोचक विशेषता का उल्लेख किया जा सकता है। बचपन से ही प्राय: ही किसी-किसी व्यक्ति या स्थान को देखकर उन्हें लगता कि उन्होंने पहले भी कहीं उन्हें देखा है परंतु कब और कहाँ देखा है, इसका वे स्मरण न कर पाते। एक बार वे अपने कुछ मित्रों के साथ एक मित्र के मकान के एक कमरे में बैठकर किन्हीं विषयों पर चर्चा कर रहे थे। उनमें किसी एक के कुछ कहने पर नरेन को सहसा ऐसा प्रतीत हुआ मानो उन्होंने पहले भी कभी उसी मकान में, उन्हीं लोगों के साथ उसी विषय पर चर्चा की है। उन्होंने उस मकान को कभी अंदर से देखा न था तथापि उसके चप्पे-चप्पे का सविस्तार वर्णन किया।

पहले तो उन्होंने यह सोचकर कि शायद पिछले किसी जन्म में वे इस भवन में रह चुके हैं, पुनर्जन्म के सिद्धांत से इसकी व्याख्‍या करने का प्रयास किया, पर बाद में इस व्याख्या को असंभव कहकर त्याग दिया गया। अंत में उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि इस जन्म में उनके संपर्क में आने वाले व्यक्तियों, स्थानों तथा घटनाओं का उन्हें पहले से अवलोकन करा दिया गया था। इसी कारण उनके सामने आते ही वे उन्हें पहचान लेते हैं।

रायपुर में नरेन के पिताजी उन्हें प्रसिद्ध विद्वानों से मिलाते तथा उनके साथ विविध विषयों पर चर्चा करने को प्रोत्साहन देते। ऐसे दुरूह विषयों पर चर्चा करते समय इस बालक की तीव्र मेधाशक्ति व्यक्त हो उठती थी। नरेन ने अपने पिता से प्रत्येक विषय का सार ग्रहण करने की पद्धति, सत्य को उसके सभी दृष्टिकोणों से संपूर्ण रूप से देखने का तरीका तथा चर्चा के मुख्‍य विषय को बनाए रखने की कला सीख ली थी।

1879 ई. में उनका परिवार पुन: लौटकर कलकत्ता आ गया। हाई स्कूल की परीक्षा को काफी कम समय बच रहा था, फिर भी नरेन प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। इस बीच वे अँगरेजी तथा बंगला साहित्य की अनेक उच्च स्तरीय पुस्तकें पढ़ चुके थे। इतिहास उनका प्रिय विषय था। इन्हीं दिनों उन्होंने पुस्तकें पढ़ने तथा विषय को आयत्त कर लेने का एक अभिनव उपाय खोज निकाला था। उन्हीं के शब्दों में - 'ऐसा अभ्यास हो गया था कि लेखक का पूरा अभिप्राय समझने के लिए मुझे पुस्तक की प्रत्येक पंक्ति पढ़ने की आवश्यकता न होती थी। अनुच्छेद की प्रथम एवं अंतिम पंक्ति पढ़कर ही मैं उसका पूरा तात्पर्य समझ लेता था।

फिर बाद में मैंने पाया कि मैं किसी पृष्ठ की प्रथम एवं अंतिम पंक्ति पढ़कर ही उसकी पूरी विषयवस्तु समझ जाता हूँ। फिर कुछ और काल बाद जहाँ लेखक पाँच-छ: पृष्ठों में अपना विषय समझाने का प्रयास करता, वहाँ मैं प्रारंभ की पंक्तियाँ पढ़कर ही लेखक की सारी युक्तियाँ समझ लेता था।'

बचपन के उल्लासपूर्ण दिन समाप्त हुए। उच्च शिक्षा के लिए 1879 ई. में नरेंद्रनाथ ने कलकत्ते के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। फिर एक वर्ष बाद उन्होंने स्कॉटिश जनरल मिशनरी बोर्ड द्वारा स्थापित जनरल एसेम्बलीज इन्स्टीट्‍यूशन में दाखिला लिया। यही संस्था बाद में स्काटिश चर्च कॉलेज के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसी कॉलज के प्राचार्य तथा अँगरेजी साहित्य के प्राध्यापक हेस्टी साहब के ही मुख से उन्होंने सर्वप्रथम श्रीरामकृष्ण का नाम सुना था। नरेंद्र अब एक बलिष्ठ, फुर्तीले, हृष्ट-पुष्ट तथा आकर्षक नवयुवक के रूप में परिणत हो चुके थे तथा अध्ययन में गंभीरतापूर्वक रूचि लेने लगे थे। प्रथम दो वर्ष उन्होंने पाश्चात्य तर्कशास्त्र का अध्ययन किया।

फिर वे पाश्चात्य दर्शन तथा यूरोप के प्राचीन एवं अर्वाचीन इतिहास का गहन अध्ययन करने लगे। उनकी स्मरणशक्ति अद्‍भुत थी। ग्रीन द्वारा लिखित अँगरेजों का इतिहास आयत्त करने में उन्हें सिर्फ तीन दिन लगे थे। परीक्षा की पूर्व संध्या को बहुधा वे कड़ी चाय कॉफी लेकर सारी रात पढ़ाई करते थे।

प्राय: इन्हीं दिनों वे श्रीरामकृष्ण देव के संपर्क में आए और हम आगे देखेंगे कि इस घटना ने उनके जीवन को एक विशेष दिशा प्रदान की। श्रीरामकृष्ण के संस्पर्श में आने के फलस्वरूप उनकी अंतर्निहित आध्यात्मिक पिपासा जाग्रत हो उठी। वे जगत की क्षणभंगुरता तथा बौद्धिक शिक्षा की व्यर्थता का बोध करने लगे। अपनी बीए की परीक्षा के पहले दिन ही उन्हें सहसा ईश्वर के प्रति सर्वग्रासी प्रेम की अनुभूति हुई और वे अपने एक सहपाठी के कमरे के द्वार पर खड़े होकर भावुकतापूर्वक गाने लगे। भावार्थ इस प्रकार है -

हे पर्वतो! बादलो! हवाओ!
सब मिलकर उनकी महिमा गाओ!
हे सूर्य! हे चंद्र! हे तारकाओ!
आनंदपूर्वक प्रभु की महिमा गाओ।

मित्र ने विस्मित होकर नरेंद्र को अगले दिन होने वाली परीक्षा की याद दिलाई तो भी उन्होंने ध्यान नहीं दिया। आसन्न संन्यास-जीवन की छाया उन्हें तेजी से आवृत्त किए जा रही थी। फिर भी वे परीक्षा में बैठे एवं आसानी से सफल हुए।

उनकी प्रशंसा करते हुए एक बार प्रो. हेस्टी ने कहा था -
'नरेंद्र एक वास्तविक प्रतिभाशाली युवक है। मैंने दूर-दूर की यात्रा की है परंतु ऐसी प्रतिभा एवं संभावनाओं वाला लड़का कभी भी नहीं मिला, यहाँ तक कि जर्मन विश्वविद्यालय के दर्शन के छात्रों में भी कोई नहीं दिखा। वह जीवन में निश्चय ही कुछ कर दिखाएगा।'

नरेंद्र की बहुमुखी प्रतिभा संगीत के माध्यम से भी अभिव्यक्त थी। उन्होंने संगीत विशारदों से वाद्य एवं स्वरसंगीत दोनों ही सीखे थे। वे कई तरह के वाद्य में पारंगत थे, परंतु गायन में तो वे सानी न रखते थे। उन्होंने एक मुसलमान शिक्षक से हिन्दी, उर्दू तथा फारसी के अनेक भक्तिमूलक गाने सीखे।

उस काल के सबसे महत्वपूर्ण धर्म-आंदोलन ब्रह्मसमाज के साथ भी वे जुड़े थे और इसका उनके प्रारंभिक जीवन पर काफी प्रभाव पड़ा था।

ब्रिटिश साम्राज्य से पराभूत हो जाने के पश्चात भारत में अँगरेजी शिक्षा का सूत्रपात हुआ। इसके फलस्वरूप हिन्दू समाज बौद्धिक एवं आक्रामक यूरोपीय संस्कृ‍ति के संपर्क में आया। अभिनव तथा सक्रिय जीवनधारा के सम्मोहन में आकर हिन्दू युवकों को अपने समाज में अनेक दोष ‍दिख पड़े। अँगरेज लोगों के आगमन के पूर्व मुस्लिम शासनकाल में ही हिन्दू समाज की गति अवरुद्ध हो गई थी, जा‍ति प्रथा में ऊँच-नीच का भेद बढ़ गया था तथा पुरोहितगण अपने‍ निजी स्वार्थ के लिए आम जनता का धार्मिक जीवन नियंत्रित करने लगे थे।

उपनिषद एवं भगवद्‍गीता के शक्तिदायी दार्शनिक विचारों के साथ निरर्थक अंधविश्वास तथा निर्जीव रीतिरिवाज घुलमिल गए थे। जमींदार जनसाधारण का शोषण करने लगे थे तथा महिलाओं की दशा दयनीय हो गई थी। मुस्लिम शासन के पतन के बाद से भारतीय जनजीवन के सामाजिक, राजनीतिक धार्मिक तथा आर्थिक - प्रत्येक क्षेत्र में विश्रृंखला फल गई थी। नवोदित पाश्चात्य शिक्षा ने समाज के अनेक दोषों को तीव्र आलोक में ला दिया। अब राष्ट्रीय जीवन को एक बार पुन: नवजीवन के मार्ग पर ले जाने के उद्देश्य से अनेक पुरातनपंथी तथा उदारवादी सुधार आंदोलनों का प्रादुर्भाव हुआ।
ब्रह्मसमाज इन उदारवादी आंदोलनों में एक था जिसने बंगाल के शिक्षित नवयुवकों को आकृष्ट किया। इसके संस्थापक राजा राममोहन राय (1774-1833 ई.) ने परंपरागत हिन्दू धर्म के कर्मकांड, मूर्तिपूजा और पुरोहिती प्रथा का बहिष्कार किया और अपने अनुयाइयों को आह्वान किया कि वे 'इस विश्व-ब्रह्माण्ड के सृष्टि एवं पालनकर्ता - अनंत, अगोचर तथा अक्षर परमात्मा की पूजा-आराधना' करें।

टिप्पणियाँ

  1. आप का लेख लिखने का तरीका, बहुत ही सुंदर व सुव्यवस्थित है आप ने बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारियो का संग्रह किया है, धन्यवाद, मीरा बाई का जीवन परिचय

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