अमृतादेवी : हरे वृक्षों को बचाने के लिये, सपरिवार बलिदान

 

‘सर साठे रुंख रहे तो भी सस्तो जाण’

अमृतादेवी हरे वृक्षों को बचाने के लिये बलिदान

शहीद अमृता देवी बिश्रोई ने हरे वृक्षों की रक्षा के लिए अपने पूरे परिवार को बलिदान कर दिया।  इस परिवार के अलावा बिश्रोई समाज के 363 अन्य महिला पुरूष भी शहीद हुए। जोधपुर के समीप खेजड़ी गांव में अपने राजा के आदेश पर महामन्त्री गिरधर ने हरे पेड़ों को काटने पहुंचा तो अमृता देवी बिश्रोई हरे पेड़ से लिपट गई और अपनी गर्दन कटवा दी, उसके बाद उसकी 2 पुत्रियों फिर पति ने भी हरे पेड़ों को बचाने के लिए अपना बलिदान दे दिया। उसी तरह 363 बिश्रोई समुदाय के लोगों ने अपना बलिदान दे दिया।  

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पर्यावरण संरक्षण के लिए मर मिटने की इस जाति ने ऐसी मिसाल कायम की है जो इतिहास के पन्नों पर सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। सन 1730 में जोधपुर के पास खेजडली गांव में राजा की सेना से खेजड़ी के पेड़ों की रक्षा करते बिश्नोई समाज के 363 स्त्री-पुरुषों को पेड़ों के साथ ही काट डाला था। इस घटना में एक महिला अमृता देवी के नेतृत्व में 83 गांवों के 363 बिश्नोई लोग पेड़ों को काटने से बचाने के लिए उससे लिपट गए थे। इनमें बच्चे, बूढ़े, जवान, महिलाएं सभी शामिल थे। बिश्नोइयों के लिए पर्यावरण और वन्यजीवों की रक्षा करना उनका जीवन सिद्धांत है।
यह बिश्नोइयों के गुरू जंभेश्वर द्वारा तय 29 जीवन-सिद्धांतों में से एक है। यह समाज राजस्थान में मुख्य रूप से पश्चिमी इलाके मारवाड़ में निवास करता है। मारवाड़ का ज्यादातर भाग रेगिस्तानी होने के कारण वैसे ही यहां वनों और वन्यजीवों की कमी है । सरकार ने चिंकारा को राज्य पशु तो घोषित कर दिया है लेकिन उसकी सुरक्षा के प्रति वह कोई खास प्रयास करती नजर नहीं आ रही है। यहां तक कि ग्रामीण जब अपनी आंखों के सामने इसका शिकार होता देखते हैं और शिकायत करते हैं तब भी सरकारी अमला उसके प्रति गंभीरता नहीं दिखाता है।
पर्यावरण प्रेम की डोर से बंधी बिश्नोई समुदाय की महिलाएं वृक्ष पूजती हुईं पर्यावरण प्रेम की डोर से बंधी बिश्नोई समुदाय की महिलाएं वृक्ष पूजती हुईं बहरहाल, थार में रहने वाले ग्रामीण विशेषकर बिश्नोई जाति आज भी पेड़ों और वन्यजीवों की रक्षा के प्रति ग्रामीण संकल्प नहीं भूली है। ये लोग आज भी इनकी रक्षा के लिए अपनी जान देने तक से नहीं चूकते। करीब एक दशक पहले एक बिश्नोई युवक निहालचंद वन्यजीवों की रक्षा की कोशिश में शिकारियों से लड़ते हुए अपनी जान पर खेल गया। बाद में इस घटना पर ‘विलिंग टू सैक्रीफाइस’ फिल्म भी बनाई गई। फिल्म को स्लोवाक गणराज्य में हुए फिल्म महोत्सव में पुरस्कृत भी किया गया। अपने स्तर पर वन्यजीवों की रक्षा में जुटे बिश्नोई समाज को यदि सरकार का समर्थन मिल जाए तो इलाके में एक भी वन्यजीव शिकारियों के हत्थे न चढ़े।
थार में रहने वाले ग्रामीण विशेषकर बिश्नोई जाति आज भी पेड़ों और वन्यजीवों की रक्षा के प्रति ग्रामीण संकल्प नहीं भूली है। ये लोग आज भी इनकी रक्षा के लिए अपनी जान देने तक से नहीं चूकते। करीब एक दशक पहले एक बिश्नोई युवक निहालचंद वन्यजीवों की रक्षा की कोशिश में शिकारियों से लड़ते हुए अपनी जान पर खेल गया। बाद में इस घटना पर ‘विलिंग टू सैक्रीफाइस’ फिल्म भी बनाई गई। फिल्म को स्लोवाक गणराज्य में हुए फिल्म महोत्सव में पुरस्कृत भी किया गया।
राजस्थान में एक कहावत प्रचलित है- ‘सर साठे रुंख रहे तो भी सस्तो जाण’, यानी सिर कटवा कर भी वृक्षों की रक्षा हो सके, तो इसे फायदे का सौदा ही समझिए। जोधपुर के खेजड़ली गांव में संवत् 1787 (सन् 1730) की भादवा सुदी दशमी, दिन मंगलवार को खेजड़ी के पेड़ों की रक्षा के लिए विश्नोई जाति के सैकड़ों लोगों की कुर्बानी की गाथा इसका ज्वलंत उदाहरण है। इस ‘चिपको आंदोलन’ में स्त्रियां हरावल में थीं। कालांतर में उत्तरांचल में सुंदरलाल बहुगुणा द्वारा उत्प्रेरित वन रक्षा के ‘चिपको अभियान’ को साधारण गृहणियों ने ही परवान चढ़ाया था। आज जिस तरह सुनियोजित तरीके से जंगलों को उजाड़ने का अभियान खुद सरकारों तक की ओर से चलाया जा रहा है, वैसी स्थिति में वनों को बचाने के लिए ‘चिपको अभियान’ जैसी सामाजिक प्रतिबद्धता की जरूरत है।
खेजड़ली के बलिदान की गाथा रोमांचक और प्रेरणास्पद है। जोधपुर किले के निर्माण में काम आने वाली लकड़ियों की आपूर्ति के लिए वहां खेजड़ी के वृक्षों की कटाई का निर्णय लिया गया। इस पर खेजड़ली गांव के लोगों ने अपनी जान की कीमत पर भी वन की रक्षा करने का निश्चय किया। चौरासी गांवों को इस फैसले की सूचना दे दी गई। सैकड़ों की तादाद में लोग खेजड़ली गांव में इकट्ठे हो गए और पेड़ों को काटने से रोकने के लिए उनसे चिपक गए। लेकिन शासन ने इसकी परवाह नहीं की और जब बर्बरतापूर्वक पेड़ों को काटा जाने लगा उन पर चिपके हुए लोगों के शरीर के टुकड़े-टुकड़े होकर गिरने लगे। एक व्यक्ति के कटने पर तुरंत दूसरा व्यक्ति उसी पेड़ से चिपक जाता। इस बलिदान में अमृतादेवी और उनकी दो पुत्रियां हरावल में रहीं। पुरुषों में सर्वप्रथम अणदोजी ने बलिदान दिया था और बाद में विरतो बणियाल, चावोजी, ऊदोजी, कान्होजी, किसनोजी, दयाराम आदि पुरुषों और दामी, चामी आदि स्त्रियों ने अपने प्राण दिए। कुल मिला कर तीन सौ तिरसठ स्त्री-पुरुषों ने अपनी जान दे दी। जब इस घटना की सूचना जोधपुर के महाराजा को मिली तब जाकर उन्होंने पेड़ों की कटाई रुकवाई और भविष्य में वहां पेड़ न काटने के आदेश दिए। खेजड़ली के इन वीरों की स्मृति में यहां हर वर्ष भादवा सुदी दशमी को मेला लगता है, जिसमें हजारों की संख्या में लोग इकट्ठे होते हैं।

इस घटना का वर्णन करते हुए कवि गोकुजी ने खेजड़ली की साखी में लिखा है- ‘ऊदो सार समाही आयो, सिर सौंपा रुंखा सट्टै/ सिर सौंपा अर नहीं कंपा, मरण सूं मत को डरो।’ वन की रक्षार्थ स्वेच्छा से प्राण देने की ऐसी अनेक घटनाएं हैं, जिन्हें ‘खेजड़ली के खड़ाणे’ से जाना जाता है। खेजड़ली के अप्रतिम बलिदान से पूर्व भी, राजस्थान की मरुभूमि के अनेक स्त्री-पुरुषों ने वनों की रक्षा के लिए स्वेच्छा से अपने प्राणों की आहुति दी थी। इतिहास के पन्नों में दफन हो चुके ये स्त्री-पुरुष जांभोजी के अनुयायी थे। जांभोजी ने संवत 1542 की कार्तिक वदी अष्टमी को विश्नोई धर्म का प्रवर्तन किया और अपने अनुयायियों को ‘सबद वाणी’ में उपदेश दिया कि वनों की रक्षा करें। जांभोजी के भक्त कवि ऊदोजी नैण ने विश्नोई धर्म के अनुयायियों के लिए उनतीस नियमों में वृक्षों की रक्षा पर जोर देते हुए लिखा- ‘करै रुंख प्रतिपाल खेजड़ा रखत रखावै।’ कवि वील्होजी ने ‘बतीस आखड़ी’ में ‘राख दया घट माही, वृक्ष घावै नहीं’ कह कर वृक्षों की कटाई को निषिद्ध बताया। जांभोजी के अनुयायियों ने अपने गांवों के चारों ओर ओरण में पेड़ लगाए और उनकी रक्षा की। विश्नोई समाज में वन और वन्य जीवों की रक्षा के लिए वह उत्सर्ग या बलिदान का जज्बा आज भी जिंदा है।

खेजड़ली में पेड़ों की रक्षा के लिए आत्मोत्सर्ग का ऐसा सामूहिक स्वैच्छिक अनुष्ठान विश्व भर में अनूठा और अद्वितीय है। इस बलिदान की गौरवमयी विरासत से प्रेरित होकर हर राजस्थानी को वन संरक्षण और संवर्धन के लिए संकल्पबद्ध होना चाहिए। अनुसूचित जनजातियों (वनवासियों) का भी जन्मजात जुड़ाव जल, जंगल, जमीन से रहा है। इसलिए समाज को ही वन संपदा का ‘रखवाला’ बनाया जाए। भारत की दो लाख तेईस हजार पंचायतों को वन रक्षण संस्कृति का संवाहक बनाया जाए। हर पंचायत मुख्यालय में ‘स्मृति वन’ की स्थापना हो। हर शिक्षण संस्थान, सरकारी दफ्तर के प्रांगण में वृक्षारोपण कार्यक्रम चलाया जाए। हर शहर हरा शहर बने। जहां भी वृक्षों की कटाई करके औद्योगिक इकाइयों, खनिज उत्खनन और सड़क विस्तार की इकाइयों की स्थापना की जाती है, वहां पहले से चार गुना वृक्षों को लगाने के बाद ही उत्पादन शुरू करने की इजाजत दी जाए। केवल कागजी सरकारी प्रयासों से मरुस्थल हरा-भरा नहीं हो सकता।

स्वैच्छिक सामाजिक संस्थाओं के सहयोग, आम जन में उत्तरादायित्व की भावना का विकास और सरकारी योजनाओं के यथासंभव सही क्रियान्वयन से ही इस उद्देश्य की पूर्ति की जा सकती है। वृक्षारोपण, संरक्षण, संवर्धन जन-जन का अभियान बने, तभी वन विस्तार की हरीतिमा राजस्थान की मरुभूमि में पसर सकती है। सघन वन ही मेघों को आमंत्रित कर बरसात के लिए प्रेरित करता है। वन नहीं तो वर्षा नहीं, वर्षा नहीं तो सुजलां-सुफलां धरती नहीं।

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  1. थार में रहने वाले ग्रामीण विशेषकर बिश्नोई जाति आज भी पेड़ों और वन्यजीवों की रक्षा के प्रति ग्रामीण संकल्प नहीं भूली है। ये लोग आज भी इनकी रक्षा के लिए अपनी जान देने तक से नहीं चूकते। करीब एक दशक पहले एक बिश्नोई युवक निहालचंद वन्यजीवों की रक्षा की कोशिश में शिकारियों से लड़ते हुए अपनी जान पर खेल गया। बाद में इस घटना पर ‘विलिंग टू सैक्रीफाइस’ फिल्म भी बनाई गई। फिल्म को स्लोवाक गणराज्य में हुए फिल्म महोत्सव में पुरस्कृत भी किया गया।

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