हरियाली तीज : भगवान शंकर और मां पार्वती की पूजा को समर्पित



बूंदी की तीज
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हरियाली तीज मुख्यत: स्त्रियों का त्योहार है। इस समय जब प्रकृति चारों तरफ हरियाली की चादर सी बिछा देती है तो प्रकृति की इस छटा को देखकर मन पुलकित होकर नाच उठता है। जगह-जगह झूले पड़ते हैं। स्त्रियों के समूह गीत गा-गाकर झूला झूलते हैं। श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को श्रावणी तीज कहते हैं। इसे हरितालिका तीज भी कहते हैं। जनमानस में यह हरियाली तीज के नाम से जानी जाती है।

मेंहदी / रीति रिवाज़
स्त्रियाँ अपने हाथों पर त्योहार विशेष को ध्यान में रखते हुए भिन्न-भिन्न प्रकार की मेहंदी लगाती हैं। मेहंदी रचे हाथों से जब वह झूले की रस्सी पकड़ कर झूला झूलती हैं तो यह दृश्य बड़ा ही मनोहारी लगता हैं मानो सुहागिन आकाश को छूने चली हैं। इस दिन सुहागिन स्त्रियाँ सुहागी पकड़कर सास के पांव छूकर उन्हें देती हैं। यदि सास न हो तो स्वयं से बड़ों को अर्थात जेठानी या किसी वृद्धा को देती हैं। इस दिन कहीं-कहीं स्त्रियाँ पैरों में आलता भी लगाती हैं जो सुहाग का चिह्न माना जाता है। हरियाली तीज के दिन अनेक स्थानों पर मेले लगते हैं और माता पार्वती की सवारी बड़े धूमधाम से निकाली जाती है। वास्तव में देखा जाए तो हरियाली तीज कोई धार्मिक त्योहार नहीं वरन महिलाओं के लिए एकत्र होने का एक उत्सव है। नवविवाहित लड़कियों के लिए विवाह के पश्चात पड़ने वाले पहले सावन के त्योहार का विशेष महत्त्व होता है।

पौराणिक महत्त्व
श्रावण शुक्ल तृतीया (तीज) के दिन भगवती पार्वती सौ वर्षों की तपस्या साधना के बाद भगवान शिव से मिली थीं। माँ पार्वती का इस दिन पूजन - आह्वान विवाहित स्त्री - पुरुष के जीवन में हर्ष प्रदान करता है। समस्त उत्तर भारत में तीज पर्व बड़े उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है। इसे श्रावणी तीज, हरियाली तीज तथा कजली तीज भी कहते हैं।
बुन्देलखंड के जालौन, झाँसी, दनिया, महोबा, ओरछा आदि क्षेत्रों में इसे हरियाली तीज के नाम से व्रतोत्सव के रूप में मनाते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश, बनारस, मिर्ज़ापुर, देवलि, गोरखपुर, जौनपुर, सुल्तानपुर आदि ज़िलों में इसे कजली तीज के रूप में मनाने की परम्परा है। लोकगायन की एक प्रसिद्ध शैली भी इसी नाम से प्रसिद्ध हो गई है, जिसे 'कजली' कहते हैं।

राजस्थान के लोगों के लिए त्योहार ही जीवन का सार है।
हरियाली तीज के अवसर पर मौज मस्ती करती हुई लड़कियाँ
तीज के आगमन के हर्ष में मोर हर्षित हो नृत्य करने लगते हैं।
स्त्रियाँ उद्यानों में लगे रस्सी के झूले में झूलकर प्रसन्नचित् होती हैं तथा सुरीले गीतों से वातावरण गूँज उठता है।

तीज सावन (जुलाई–अगस्त) के महीने में शुक्लपक्ष के तीसरे दिन मनाई जाती है।
तीज उत्सव की परम्परा
तीज भारत के अनेक भागों में मनाई जाती है, परन्तु राजस्थान की राजधानी जयपुर में इसका विशेष महत्त्व है। तीज का आगमन भीषण ग्रीष्म ऋतु के बाद पुनर्जीवन व पुनर्शक्ति के रूप में होता है। यदि इस दिन वर्षा हो, तो यह और भी स्मरणीय हो उठती है। लोग तीज जुलूस में ठंडी बौछार की कामना करते हैं। ग्रीष्म ऋतु के समाप्त होने पर काले - कजरारे मेघों को आकाश में घुमड़ता देखकर पावस के प्रारम्भ में पपीहे की पुकार और वर्षा की फुहार से आभ्यंतर आनन्दित हो उठता है। ऐसे में भारतीय लोक जीवन कजली या हरियाली तीज का पर्वोत्सव मनाता है। आसमान में घुमड़ती काली घटाओं के कारण ही इस त्योहार या पर्व को 'कजली' या 'कज्जली तीज' तथा पूरी प्रकृति में हरियाली के कारण 'तीज' के नाम से जाना जाता है।
इस त्योहार पर लड़कियों को ससुराल से पीहर बुला लिया जाता है। विवाह के पश्चात पहला सावन आने पर लड़की को ससुराल में नहीं छोड़ा जाता है। नवविवाहिता लड़की की ससुराल से इस त्योहार पर सिंजारा भेजा जाता है। हरियाली तीज से एक दिन पहले सिंजारा मनाया जाता है। इस दिन नवविवाहिता लड़की की ससुराल से वस्त्र, आभूषण, शृंगार का सामान, मेहंदी और मिठाई भेजी जाती है। इस दिन मेहंदी लगाने का विशेष महत्त्व है।

साज–शृंगार और आनन्द का उत्सव
तीज पूर्ण रूप से स्त्रियों का उत्सव है।
स्त्रियाँ आकर्षक परिधानों से सुसज्जित हो भगवती पार्वती की उपासना करती हैं।
राजस्थान में जिन कन्याओं की सगाई हो गई होती है, उन्हें अपने भविष्य के सास - ससुर से एक दिन पहले ही भेंट मिलती है। इस भेंट को स्थानीय भाषा में "शिंझार" (शृंगार) कहते हैं।
शिंझार में अनेक वस्तुएँ होती हैं। जैसे - मेंहदी, लाख की चूड़ियाँ, लहरिया नामक विशेष वेश–भूषा, जिसे बाँधकर रंगा जाता है तथा एक मिष्टान जिसे "घेवर" कहते हैं।

तीज उत्सव की विशेष रस्म–बया
इसमें अनेक भेंट वस्तुएँ होती हैं, जिसमें वस्त्र व मिष्ठान होते हैं। इसे माँ अपनी विवाहित पुत्री को भेजती है। पूजा के बाद 'बया' को सास को सुपुर्द कर दिया जाता है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी यदि कन्या ससुराल में है, तो मायके से तथा यदि मायके में है, तो ससुराल से मिष्ठान, कपड़े आदि भेजने की परम्परा है। इसे स्थानीय भाषा में 'तीज' की भेंट कहा जाता है।
राजस्थान हो या पूर्वी उत्तर प्रदेश प्रायः नवविवाहिता युवतियों को सावन में ससुराल से मायके बुला लेने की परम्परा है।

सभी विवाहिताएँ इस दिन विशेष रूप से शृंगार करती हैं।
सायंकाल बन ठनकर सरोवर के किनारे उत्सव मनाती हैं और उद्यानों में झूला झूलते हुए कजली के गीत गाती हैं।

मेंहदी रचाने का उत्सव
इस अवसर पर नवयुवतियाँ हाथों में मेंहदी रचाती हैं। तीज के गीत हाथों में मेंहदी लगाते हुए गाये जाते हैं। समूचा वातावरण शृंगार से अभिभूत हो उठता है। इस त्योहार की सबसे बड़ी विशेषता है, महिलाओं का हाथों पर विभिन्न प्रकार से बेलबूटे बनाकर मेंहदी रचाना। पैरों में आलता लगाना, महिलाओं के सुहाग की निशानी है। राजस्थान में हाथों व पाँवों में भी विवाहिताएँ मेंहदी रचाती हैं। जिसे "मेंहदी - माँडना" कहते हैं। इस दिन राजस्थानी बालाएँ दूर देश गए अपने पति के तीज पर आने की कामना करती हैं। जो कि उनके लोकगीतों में भी मुखरित होता है।

तीज पर तीन बातें त्यागने का विधान है -
पति से छल–कपट
झूठ एवं दुर्व्यवहार करना
परनिन्दा

मल्हार और झूलों का उत्सव
तीज के दिन का विशेष कार्य होता है, खुले स्थान पर बड़े–बड़े वृक्षों की शाखाओं पर झूला बाँधना। झूला स्त्रियों के लिए बहुत ही मनभावन अनुभव है। मल्हार गाते हुए मेंहदी रचे हुए हाथों से रस्सी पकड़े झूलना एक अनूठा अनुभव ही तो है। सावन में तीज पर झूले न लगें, तो सावन क्या? तीज के कुछ दिन पूर्व से ही पेड़ों की डालियों पर, घर की छत की कड़ों या बरामदे में कड़ों में झूले पड़ जाते हैं और नारियाँ, सखी - सहेलियों के संग सज - संवरकर लोकगीत, कजरी आदि गाते हुए झूला झूलती हैं। पूरा वातावरण ही उनके गीतों के मधुर लयबद्ध सुरों से रसमय, गीतमय और संगीतमय हो उठता है।

जयपुर का तीज माता उत्सव और जुलूस
हरियाली तीज के अवसर पर झूला झूलती महिलाएँ
जयपुर के राजाओं के समय में पार्वती जी की प्रतिमा, जिसे 'तीज माता' कहते हैं, को एक जुलूस उत्सव में दो दिन तक ले जाया जाता था।
उत्सव से कुछ पूर्व प्रतिमा में दोबारा से रंगकारी की जाती है तथा त्योहार वाले दिन इसे नवपरिधानों से सजाया जाता है।
पारम्परिक आभूषणों से सुसज्जित राजपरिवार की स्त्रियाँ मूर्ति की पूजा, जनाना कमरे में करती हैं।
इसके पश्चात प्रतिमा को जुलूस में सम्मिलित होने के लिए प्रांगण में ले जाया जाता है।
हज़ारों दर्शक बड़ी अधीरता से भगवती की एक झलक पाने के लिए लालायित हो उठते हैं।
लोगों की अच्छी ख़ासी भीड़ होती है। मार्ग के दोनों ओर, छतों पर हज़ारों ग्रामीण अपने पारम्परिक रंग–बिरंगे परिधानों में एकत्रित होते हैं।
पुरोहित द्वारा बताए गए शुभ मुहूर्त में, जुलूस का नेतृत्व निशान का हाथी (इसमें एक विशेष ध्वजा बाँधी जाती है) करता है। सुसज्जित हाथी, बैलगाड़ियाँ व रथ इस जुलूस को अत्यन्त ही मनोहारी बना देते हैं।
यह जुलूस फिर त्रिपोलिया द्वार से प्रस्थान करता है और तभी लम्बी प्रतीक्षा के बाद तीज प्रतिमा दृष्टिगोचर होती है। भीड़ आगे बढ़ प्रतिमा की एक झलक के रूप में आशीर्वाद पाना चाहती है।
जैसे ही जुलूस आँखों से ओझल होता है, भीड़ तितर–बितर होना आरम्भ हो जाती है। लोग घर लौटकर अगले त्योहार की तैयारी में लग जाते हैं।
तीज, नृत्य व संगीत का उल्लास भरा पर्व है। सभी प्रसन्न हो, अन्त में स्वादिष्ट भोजन का आनन्द लेते हैं।
प्रकृति एवं मानव हृदय की भव्य भावना की अभिव्यक्ति तीज पर्व (कजली तीज, हरियाली तीज व श्रावणी तीज) में निहित है।
इस त्योहार के आस–पास खेतों में ख़रीफ़ की बुवाई भी शुरू हो जाती है। अतः लोकगीतों में उस त्योहार को सुखद, सुरम्य और सुहावने रूप में गाया–मनाया जाता है।
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मनोकामनाएं पूर्ण करता है हरियाली तीज का उपवास
09-08-2013
http://www.punjabkesari.in/news
सावन के मौसम में पेड़ों से टपकती बारिश की रिमझिम बूंदे जब घर-आंगन में गिरती हैं, तो अपने साथ लेकर आती हैं ढेरों खुशियों की बौछारें। हरियाली तीज भी ऐसी ही खुशी की सौगात लेकर आती है। यह महज इत्तफाक नहीं, बल्कि अहसास है उस नवविवाहिता का, जो बाबुल का घर छोड़कर अपने पिया के आंगन में बैठी इन रिमझिम बूंदों में मां का चेहरा देखती है। मां से संवाद करती है। मां उसे जी भर कर खुशियां बटोरने का आशीर्वाद देती है।
कुछ ऐसे ही परंपरागत प्रतीकों के साथ हरियाली तीज का यह त्यौहार मन में उल्लास भर देता है। खुशी की इस हलचल में सावन के झूले, मेहंदी की रंगत, बिंदिया की चमचम व चूडिय़ों की खनक के साथ सुहाग पिटारी में पति की लंबी उम्र के लिए श्रद्धा व प्रेम भाव सम्मिलित होता है लेकिन आज के माहौल में परंपराएं पीछे छूट रही हैं, उन पर आधुनिकता हावी हो गई है। त्यौहारों का व्यवसायीकरण हो गया है और संबंधों में शिथिलता आ गई है। 
ऐसे में, हरियाली तीज का रूप-रंग हमें हर जगह एक-सा देखने को नहीं मिलता। यही वजह है कि समय-समय पर साहित्यकार अपनी लेखनी में पीछे छूटती परंपराओं को याद दिलाने का दम भरते हैं, तो कलाकार अपने गीतों के जरिए माहौल में हरियाली तीज की रौनक बनाए रखने में पीछे नहीं रहते।

हरियाली तीज का त्यौहार हमें प्रकृति व पर्यावरण से जुड़े रहने का संदेश देता है। सावन के मौसम में जहां चारों ओर हरियाली से भरे बाग-बगीचे, फूलों की खुशबू व रंगों से माहौल सराबोर रहता है, उसी तरह हमें अपने जीवन में भी हरियाली बनाए रखनी होगी। खासकर संबंधों की हरियाली को बरकरार रखना बहुत जरूरी है। 

आज के समय में त्यौहार पहले जैसे नहीं रहे हैं पहले सखियां मिलकर सावन के गीत गाती थीं, झूला, कजरी के गीतों की महफिल सजती थी। आज सखियों से मिलने की बात तो बहुत दूर, पति से भी मोबाइल पर ही बात होती है। साड़ी-लहंगे व सलवार-सूट के साथ पहनी जाने वाली चूडिय़ां भी आज जींस के साथ पहनी जा रही हैं। सास-ननदें व पति इस बात से सुकून कर लेते हैं कि चाहे लघु रूप में ही सही, परंपराओं का निर्वाह तो हो रहा है। भले ही इनके निर्वाह में श्रद्धा, प्रेम व अपनत्व का कम और बाजारी दिखावा ज्यादा हावी हो गया है।
महिलाओं ने बताया कि इस दिन रखे जाने वाले व्रत की अहमियत इतनी है कि सुहागिन स्त्रियां पति की लंबी उम्र की कामना के लिए पूरा दिन भूखी-प्यासी रहती हैं। हरियाली तीज के दिन महिलाएं भगवान शंकर और मां पार्वती की पूजा करती हैं। इस व्रत के पीछे प्रचलित कथा इस प्रकार है कि पार्वती जी इस दिन पति परमेश्वर के प्रेम में इतनी लीन हो जाती हैं कि उन्हें न खाने की सुध रहती है और न पीने की। तब से इस दिन स्त्रियां अपने सुहाग के लिए उपवास रखकर मनोकामनाएं पूरी होने का आशीर्वाद मांगती हैं।

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