सांप्रदायिक हिंसा बिल :आप दोषी हो, ना हो जेल जाओ..!


सांप्रदायिक हिंसा बिल :आप दोषी हो, ना हो  जेल जाओ..!
विनोद बंसल

अभी हाल ही में यूपीए अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा एक विधेयक का मसौदा तैयार किया गया है। इसका नाम सांप्रदायिक एव लक्षित हिंसा रोकथाम (न्याय एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक 2011 ['Prevention of Communal and Targeted Violence (Access to Justice and Reparations) Bill,2011'] है। ऐसा लगता है कि इस प्रस्तावित विधेयक को अल्पसंख्यकों का वोट बैंक मजबूत करने का लक्ष्य लेकर, हिन्दू समाज, हिन्दू संगठनों और हिन्दू नेताओं को कुचलने के लिए तैयार किया गया है। साम्प्रदायिक हिंसा रोकने की आड़ में लाए जा रहे इस विधेयक के माध्यम से न सिर्फ़ साम्प्रदायिक हिंसा करने वालों को संरक्षण मिलेगा बल्कि हिंसा
के शिकार रहे हिन्दू समाज तथा इसके विरोध में आवाज उठानेवाले हिन्दू संगठनों का दमन करना आसान होगा। इसके अतिरिक्त यह विधेयक संविधान की मूल भावना के विपरीत राज्य सरकारों के कार्यों में हस्तक्षेप कर देश के संघीय ढांचे को भी ध्वस्त करेगा। ऐसा प्रतीत होता है कि इसके लागू होने पर भारतीय समाज में परस्पर अविश्वास और विद्वेष की खाई इतनी बड़ी और गहरी हो जायेगी जिसको पाटना किसी के लिए भी सम्भव नहीं होगा।

मजे की बात यह है कि एक समानान्तर व असंवैधानिक सरकार की तरह काम कर रही राष्ट्रीय सलाहकार परिषद बिना किसी जवाब देही के सलाह की आड़ में केन्द्र सरकार को आदेश देती है और सरकार दासत्व भाव से उनको लागू करने के लिए हमेशा तत्पर रहती है। जिस ड्राफ्ट कमेटी ने इस विधेयक को बनाया है, उसका चरित्र ही इस विधेयक के इरादे को स्पष्ट कर देता है। जब इसके सदस्यों और सलाहकारों में हर्ष मंडेर, अनु आगा, तीस्ता सीतलवाड़, फराह नकवी जैसे हिन्दू विद्वेषी तथा सैयद शहाबुद्दीन, जॉन दयाल, शबनम हाशमी और नियाज फारुखी जैसे घोर साम्प्रदायिक शक्तियों के हस्तक हों तो विधेयक के इरादे क्या होंगे, आसानी से कल्पना की जा सकती है। आखिर ऐसे लोगों द्वारा बनाया गया दस्तावेज उनके चिन्तन के विपरीत कैसे हो सकता है।
जिस समुदाय की रक्षा के बहाने से इस विधेयक को लाया गया है इसको इस विधेयक में 'समूह' का नाम दिया गया है। इस 'समूह' में कथित धार्मिक व भाषाई अल्पसंख्यकों के अतिरिक्त दलित व वनवासी वर्ग को भी सम्मिलित किया गया है। अलग-अलग भाषा बोलने वालों के बीच सामान्य विवाद भी भाषाई अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक विवाद का रूप धारण कर सकते हैं। इस प्रकार के विवाद
[ जारी है ]


किस प्रकार के सामाजिक वैमनस्य को जन्म देंगे, इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। विधेयक अनुसूचित जातियों व जनजातियों को हिन्दू समाज से अलग कर समाज को भी बांटने का कार्य करेगा। कुछ वर्गों में पारस्परिक असंतोष के बावजूद उन सबका यह विश्वास है कि उनकी समस्याओं का समाधान हिन्दू समाज के अंगभूत बने रहने पर ही हो सकता है।
यह विधेयक मानता है कि बहुसंख्यक समाज हिंसा करता है और अल्पसंख्यक समाज उसका शिकार होता है जबकि भारत का इतिहास कुछ और ही बताता है। हिन्दू ने कभी भी गैर हिन्दुओं को सताया नहीं, उनको संरक्षण ही दिया है। उसने कभी हिंसा नहीं की, वह हमेशा हिंसा का शिकार हुआ है। क्या यह सरकार हिन्दू समाज को अपनी रक्षा का अधिकार भी नहीं देना चाहती ? क्या हिन्दू की नियति सेक्युलर बिरादरी के संरक्षण में चलने वाली साम्प्रदायिक हिंसा से कुचले जाने की ही है ? किसी भी महिला के शील पर आक्रमण होना, किसी भी सभ्य समाज में उचित नहीं माना जाता। यह विधेयक एक गैर हिन्दू महिला के साथ किए गए दुर्व्यवहार को तो अपराध मानता है; परन्तु हिन्दू महिला के साथ किए गए बलात्कार को अपराध नहीं मानता जबकि साम्प्रदायिक दंगों में हिन्दू महिला का शील ही विधर्मियों के निशाने पर रहता है।

इस विधेयक में प्रावधान है कि 'समूह' के व्यापार में बाधा डालने पर भी यह कानून लागू होगा। इसका अर्थ है कि अगर कोई अल्पसंख्यक बहुसंख्यक समाज के किसी व्यक्ति का मकान खरीदना चाहता है और वह मना कर देता है तो इस अधिनियम के अन्तर्गत वह हिन्दू अपराधी घोषित हो जायेगा। इसी प्रकार अल्पसंख्यकों के विरुद्ध घृणा का प्रचार भी अपराध माना गया है। यदि किसी
बहुसंख्यक की किसी बात से किसी अल्पसंख्यक को मानसिक कष्ट हुआ है तो वह भी अपराध माना जायेगा। अल्पसंख्यक वर्ग के किसी व्यक्ति के अपराधिक कृत्य का शाब्दिक विरोध भी इस विधेयक के अन्तर्गत अपराध माना जायेगा। यानि अब अफजल गुरु को फांसी की मांग करना, बांग्लादेशी घुसपैठियों के निष्कासन की मांग करना, धर्मान्तरण पर रोक लगाने की मांग करना भी अपराध बन जायेगा।
दुनिया के सभी प्रबुध्द नागरिक जानते हैं कि हिन्दू धर्म, हिन्दू, देवी-देवताओं व हिन्दू संगठनों के विरुध्द कौन विषवमन करता है। माननीय न्यायपालिका ने भी साम्प्रदायिक हिंसा की सेक्युलरिस्टों द्वारा चर्चित सभी घटनाओं के मूल में इस प्रकार के हिन्दू विरोधी साहित्यों व भाषणों को ही पाया है। गुजरात की बहुचर्चित घटना गोधरा में 59 रामभक्तों को जिन्दा जलाने की प्रतिक्रिया के कारण हुई, यह तथ्य अब कई आयोगों के द्वारा स्थापित किया जा चुका है। अपराध करने वालों को संरक्षण देना और प्रतिक्रिया करने वाले समाज को दण्डित करना किसी भी प्रकार से उचित नहीं माना जा सकता। किसी निर्मम तानाशाह के इतिहास में भी अपराधियों को इतना बेशर्म संरक्षण कहीं नहीं दिया गया होगा।

भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुसार किसी आरोपी को तब तक निरपराध माना जायेगा जब तक वह दोषी सिद्ध न हो जाये; परन्तु, इस विधेयक में आरोपी तब तक दोषी माना जायेगा जब तक वह अपने आपको निर्दोष सिद्ध न कर दे। इसका मतलब होगा कि किसी भी गैर हिन्दू के लिए अब किसी हिन्दू को जेल भेजना आसान हो जाएगा। वह केवल आरोप लगाएगा और पुलिस अधिकारी आरोपी हिन्दू को जेल में डाल देगा। इस विधेयक के प्रावधान पुलिस अधिकारी को इतना कस देते हैं कि वह उसे जेल में रखने का पूरा प्रयास करेगा ही क्योंकि उसे अपनी प्रगति रिपोर्ट शिकायतकर्ता को निरंतर भेजनी होगी। यदि किसी संगठन के कार्यकर्ता पर साम्प्रदायिक घृणा का कोई आरोप है तो उस संगठन के मुखिया पर भी शिकंजा कसा जा सकता है। इसी प्रकार यदि कोई प्रशासनिक अधिकारी हिंसा रोकने में असफल है तो राज्य का मुखिया भी जिम्मेदार माना जायेगा।
यही नहीं किसी सैन्य बल, अर्ध्दसैनिक बल या पुलिस के कर्मचारी को तथाकथित हिंसा रोकने में असफल पाए जाने पर उसके मुखिया पर भी शिकंजा कसा जा सकता है।

भारतीय संविधान के अनुसार कानून व्यवस्था राज्य सरकार का विषय है। केन्द्र सरकार केवल सलाह दे सकती है। इससे भारत का संघीय ढांचा सुरक्षित रहता है; परन्तु इस विधेयक के पारित होने के बाद अब इस विधेयक की परिभाषित 'साम्प्रदायिक हिंसा' राज्य के भीतर आंतरिक उपद्रव के रूप में देखी जायेगी और केन्द्र सरकार को किसी भी विरोधी दल द्वारा शासित राज्य में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप का अधिकार मिल जायेगा। इसलिए यह विधेयक भारत के संघीय ढांचे को भी ध्वस्त कर देगा। विधेयक अगर पास हो जाता है तो हिन्दुओं का भारत में जीना दूभर हो जायेगा। देश द्रोही और हिन्दू द्रोही तत्व खुलकर भारत और हिन्दू समाज को समाप्त करने का षडयन्त्र करते रहेंगे; परन्तु हिन्दू संगठन इनको रोकना तो दूर इनके विरुध्द आवाज भी नहीं उठा पायेंगे। हिन्दू जब अपने आप को कहीं से भी संरक्षित नहीं पायेगा तो धर्मान्तरण का कुचक्र तेजी से प्रारम्भ हो
जायेगा। इससे भी भयंकर स्थिति तब होगी जब सेना, पुलिस व प्रशासन इन अपराधियों को रोकने की जगह इनको संरक्षण देंगे और इनके हाथ की कठपुतली बन देशभक्त हिन्दू संगठनों के विरुध्द कार्यवाही करने के लिए मजबूर हो जायेंगे।

इस विधेयक के कुछ ही तथ्यों का विश्लेषण करने पर ही इसका भयावह चित्र सामने आ जाता है। इसके बाद आपातकाल में लिए गए मनमानीपूर्ण निर्णय भी फीके पड़ जायेंगे। हिन्दू का हिन्दू के रूप में रहना मुश्किल हो जायेगा। देश के प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह ने पहले ही कहा था कि देश के
संसाधनों पर मुसलमानों का पहला अधिकार है। यह विधेयक उनके इस कथन का ही एक नया संस्करण लगता है। किसी राजनीतिक विरोधी को भी इसकी आड़ में कुचलकर असीमित काल के लिए किसी भी जेल में डाला जा सकता है।

इस खतरनाक कानून पर अपनी गहरी चिन्ता व्यक्त करते हुए विश्व हिन्दू परिषद
की केन्द्रीय प्रबन्ध समिति की अभी हाल ही में सम्पन्न प्रयाग बैठक में भी एक प्रस्ताव पारित किया गया है। इस प्रस्ताव में कहा गया है कि विहिप इस विधेयक को रोलट एक्ट से भी अधिक खतरनाक मानती है। और सरकार को चेतावनी देती है कि वह अल्पसंख्यकों के वोट बैंक को मजबूत करने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए हिन्दू समाज और हिन्दू संगठनों को कुचलने के अपने कुत्सित और अपवित्र इरादे को छोड़ दे। यदि वे इस विधेयक को लेकर आगे बढ़ते हैं तो हिन्दू समाज एक प्रबल देशव्यापी आन्दोलन करेगा। विहिप ने देश के राजनीतिज्ञों, प्रबुध्द वर्ग व हिन्दू समाज तथा पूज्य संतों से अपील भी की है कि वे केन्द्र सरकार के इस पैशाचिक विधेयक को रोकने के लिए सशक्त प्रतिकार करें।
आइये हम सभी राष्ट्र भक्त मिल कर इस काले कानून के खिलाफ़ अपनी आवाज बुलन्द करते हुए भारत के प्रधान मंत्री व राष्ट्रपति को लिखें तथा एक व्यापक जन जागरण के द्वारा अपनी बात को जन-जन तक पहुंचाएं। कहीं ऐसा न हो कि कोई हमें कहे कि अब पछताये क्या होत है जब चिडिया चुग गई खेत?

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सांप्रदायिक हिंसा बिल आज संसद में!
नवभारत टाइम्स | Dec 17, 2013, विशेष संवाददाता, नई दिल्ली

प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में सोमवार को हुई कैबिनेट कमिटी की मीटिंग में सांप्रदायिक हिंसा रोकने के विधेयक को मंजूरी दी गई। इसे मंगलवार को लोकसभा में पेश किया जा सकता है। बीजेपी नेता नरेंद्र मोदी के जोरदार विरोध के बाद सरकार ने बिल के कुछ प्रावधानों में बदलावों को स्वीकार कर लिया है। अब इसे कम्युनिटी न्यूट्रल यानी समुदायों के प्रति तटस्थ बनाया गया है। पहले प्रस्ताव था कि प्रभावित इलाके में बहुसंख्यक समुदाय को ही हिंसा का जिम्मेदार माना जाएगा। हिंसा से निपटने में विधायिका की भूमिका को भी कम कर दिया गया है। हिंसा की स्थिति में केंद्र के सीधे दखल के प्रस्ताव को नरम बना दिया गया है। अब राज्य चाहे तो हालात से निपटने के लिए सेना आदि की मांग केंद्र से कर सकेगा।

प्रस्तावित विधेयक में ये कहा गया था

- प्रिवेंशन ऑफ कम्यूनल वॉयलेंस (एक्सेस टु जस्टिस ऐंड रिप्रेजेंटेशंस) बिल 2013 का मकसद केंद्र, राज्य और उनके अधिकारियों को सांप्रदायिक हिंसा को ट्रांसपेरेंसी के साथ रोकने के लिए जिम्मेदार बनाना है। इस कानून के तहत केंद्र और राज्य सरकारों को जिम्मेदारी दी गई है कि वे शेड्यूल्ड कास्ट, शेड्यूल्ड ट्राइब्स, धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर की गई हिंसा को रोकने, नियंत्रित करने के लिए अपने अधिकारों का इस्तेमाल करें।

- कोई भी व्यक्ति जो अकेले, किसी संस्था का हिस्सा बनकर या किसी संस्था के प्रभाव में किसी खास धार्मिक या भाषाई पहचान वाले 'ग्रुप' के खिलाफ गैरकानूनी ढंग से हिंसा, धमकी या यौन उत्पीड़न में शामिल होता है तो वह संगठित सांप्रदायिक हिंसा का आरोपी होगा। बिल में ग्रुप की जो परिभाषा दी गई है, उसका मतलब धार्मिक या भाषाई तौर पर अल्पसंख्यकों से है। इस कानून के जरिए हेट प्रोपेगैंडा, कम्युनल वॉयलेंस के लिए फंडिंग, उत्पीड़न और पब्लिक सर्वेंट्स द्वारा ड्यूटी को न निभाना भी अपराध की श्रेणी में लाया गया है।

- ब्यूरोक्रेट्स और पब्लिक सर्वेंट्स के दंगों से निपटने के दौरान चूक के प्रति उन्हें जवाबदेह बनाया गया है। दंगों को कंट्रोल करने या रोकने में नाकाम रहने पर एफआईआर दर्ज की जा सकती है। अधिकारियों द्वारा एक खास धार्मिक या भाषाई पहचान वाले ग्रुप के खिलाफ जानबूझकर पीड़ा पहुंचाए जाने की स्थिति में जुर्माने का प्रावधान भी है। जूनियरों, सहयोगियों द्वारा दंगों को रोकने में नाकामी की स्थिति में या फोर्सेज को ठीक ढंग से सुपरवाइज न करने की स्थिति में सीनियर अधिकारियों की जिम्मेदारी तय की गई है।

- संगठित सांप्रदायिक हिंसा के लिए उम्रकैद, जबकि नफरत भरा प्रचार फैलाने के लिए 3 साल तक की सजा या जुर्माना या दोनों का प्रावधान है। ड्यूटी ठीक से न निभाने के लिए 2 से 5 साल तक की कैद और आदेश के उल्लंघन की दशा में 10 साल तक की सजा तय की गई है। मृत शख्स के करीबियों को 7 लाख रुपये का मुआवजा का प्रवधान।

इसलिए हो रहा था विरोध
- इस बिल के प्रावधानों को लेकर बीजेपी के पीएम कैंडिडेट नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कुछ राज्यों के मुख्यमंत्रियों को चिट्ठी लिख चुके हैं। यूपीए को समर्थन देने वाली पार्टियां एसपी और बीएसपी भी इससे राज्यों के अधिकार में दखल पड़ने का अंदेशा जता चुकी हैं। तृणमूल कांग्रेस, तमिलनाडु की एआईएडीएमके और ओडिशा की बीजेडी ने भी इस तरह की शंका जताई थी।

- बीजेपी ने बिल के ओरिजिनिल ड्रॉफ्ट पर सवाल उठाते हुए कहा था कि यह बिल बहुसंख्यक समाज के खिलाफ है और राज्यों की शक्तियों में दखल देने वाला है। पार्टी के मुताबिक, केंद्र उन मुद्दों पर कानून बना रहा है जो राज्य के अधिकारों की जद में आता है। सांप्रदायिक हिंसा को कानून-व्यवस्था का मामला माना जाता है, जो राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है।

- मोदी का कहना था कि यह बिल धार्मिक और भाषाई आधार पर समाज को बांटने वाला है क्योंकि इससे धार्मिक और भाषाई पहचान हमारे समाज में मजबूत हो चलेगी और आसानी से हिंसा के साधारण घटना को भी सांप्रदायिक रंग दिया जा सकेगा। यह कानून धार्मिक और भाषाई पहचान वाले नागरिकों के लिए आपराधिक कानूनों को अलग-अलग ढंग से अप्लाई करने का मौका दे सकता है।

- बिल के ब्रीच ऑफ कमांड रिस्पॉन्सिबिलिटी के प्रावधान के मुताबिक, एक पब्लिक सर्वेंट को उसके मातहतों की नाकामी के लिए सजा का प्रावधान है। बीजेपी का कहना था कि इसकी वजह से सीनियर अधिकारी आपराधिक उत्तरदायित्व के डर से दखल देने से दूरी बनाए रखेंगे और जूनियरों को फील्ड में अपनी हालत पर छोड़ देंगे। साथ ही अधिकारियों को राजनीतिक तौर पर निशाना बनाए जाने की कोशिशों को बल मिलेगा।

- दंगों के पीड़ित अल्पसंख्यक समूह धार्मिक, भाषायी और सांस्कृतिक किसी भी प्रकार के हो सकते हैं। इसके तहत अनुसूचित जाति-जनजाति समूहों की रक्षा के उपाय भी हैं। देखा जाए तो सैद्धांतिक रूप में जहां हिंदू अल्पसंख्यक होंगे, वहां उन्हें इस कानून का लाभ मिलेगा, लेकिन उन इलाकों में जहां अन्य समुदाय और इनका अंतर ज्यादा नहीं है, किस तरह से कार्रवाई होगी, यह स्पष्ट नहीं है।

- एक से अधिक अल्पसंख्यक 'समूहों' के बीच टकराव की स्थिति में क्या होगा, इस बारे में बिल कोई साफ तौर पर नजरिया पेश नहीं करता। बीजेपी इस बिल को लेकर प्रमुख तौर पर दलील दे रही है कि इस बिल से ऐसा इंप्रेशन पड़ेगा कि सांप्रदायिक हिंसा केवल बहुसंख्यक वर्ग ही करता है।

- बिल की धारा-6 में साफ किया गया है कि इसके अंतर्गत एससी, एसटी के खिलाफ हुआ अपराध उन अपराधों के अलावा है जो अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के अधीन आते हैं। बिल के विरोधियों का कहना है कि क्या एक ही अपराध के लिए दो बार सजा दी जा सकती है?

- कुछ आलोचकों का कहना है कि धारा 7 के मुताबिक, दंगों के हालत में अगर बहुसंख्यक समुदाय से जुड़ी महिला के साथ अगर रेप होता है तो यह इस बिल के तहत अपराध की श्रेणी में नहीं आएगा क्योंकि बहुसंख्यक महिला 'ग्रुप' की डेफिनिशन में नहीं आएगी।

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