विष्णु के अवतार ' नरसिंह भगवान '



भक्ति की शक्ति का परिणाम है ' नरसिंह अवतार '
नरसिंह जयंती
भगवान विष्‍णु के चौथे अवतार नृसिंह भगवान हुए हैं। हिरण्‍यकश्‍यप जैसे दैत्‍य का संहार करने के लिए उनको आधे नर और आधे सिंह का यह अनोखा अवतार लेना पड़ा। जिस दिन भगवान विष्‍णु ने यह अवतार लिया था, उस दिन वैशाख मास के शुक्‍ल पक्ष की चतुर्दशी थी। 
 
भगवान किसी न किसी गुण या रुप के विचार में अवतार लेते हैं और उस गुण या विचार को मूर्तरुप देने में, जिनका अधिक से अधिक परिश्रम लगता है, उन्हें जनता अवतार मान लेती है। यह अवतार मीमांसा है। वास्तव में अवतार व्यक्ति का नहीं, विचार का होता है और विचार के वाहन के तौर पर मनुष्य काम करते हैं। किसी युग में सत्य की महिमा प्रकट हुई, किसी में प्रेम की, किसी में करुणा की तो किसी में व्यवस्था की। इस तरह भिन्न-भिन्न गुणों की महिमा प्रकट हुई।
 
भगवान नरसिंह अवतार जगतगुरु विष्णु के दस अवतारों में से एक है। भक्ति पर आघात और धर्म पर जब भी संकट की स्थिति चरम पर होती है, तब-तब भगवान विष्णु को इनकी रक्षा के लिए आना पड़ता है। यह अवतार भी उन्हीं घटनाओं में से एक है। महर्षि कश्यप की दूसरी पत्नी दिति से हिरण्याक्ष नामक महादैत्य उत्पन्न हुआ। वह पाताल में निवास करता था। वह महान तपस्वी दैत्य एक बार पृथ्वी को लेकर पाताल में चला गया। जब भगवान् विष्णु की योग निद्रा टूटी तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि पृथ्वी कहां है। योग बल से देखा तो चौंक गये कि अरे यह दैत्य तो पृथ्वी को लेकर रसातल में चला गया है। फिर पृथ्वी के उद्धार के लिए नारायण ने दिव्य वराह शरीर धारण किया और हिरण्याक्ष का वध करके पृथ्वी को पुन: यथास्थान पर स्थापित किया। अपने भाई के वध का बदला लेने के लिए दूसरे भाई हिरण्यकशिपु ने जल में निवास करते हुए निराहार और मौन रहते हुए ग्यारह हजार वर्षो तक घोर तपस्या की।
इस अवधि में उनकी तपस्या में यम-नियम, शांति, इन्द्रिय निग्रह और ब्रह्मचर्य से संतुष्ट हो भगवान ब्रह्मा वरदान हेतु उपस्थित हुए और मनोवांछित वर मांगने को कहा। फिर हिरण्यकशिपु ने कहा, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे अमरता का वरदान दें। इस पर ब्रह्मा जी ने असमर्थता जताई और कोई दूसरा वर मांगने को कहा। फिर दैत्य ने कहा कि यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे ऐसा वरदान दें, जिसके प्रभाव से देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, सर्प, राक्षस, मनुष्य, पिशाच ये सब मुझे मार न सकें – न अस्त्र से, न शस्त्र से, न पर्वत से, न वृक्ष से, न किसी सूखे या गीले पदार्थ से, न दिन में, न रात में। कभी भी मेरी मृत्यु न हो। इस प्रकार के अनेक वरदान प्राप्त कर इस दैत्य ने अत्याचार कर स्वर्गलोक पर नियन्त्रण कर लिया। उसके भय से सभी स्वर्गलोकवासी अपना वेश बदल कर पृथ्वी पर विचरने लगे। देवताओं की चिंता देख देवगुरु बृहस्पति ने सलाह दी कि सभी देव क्षीरसागर तट पर जाकर भगवान विष्णु का स्तवन करें। उसी समय भगवान् शंकर भी विष्णु के दिव्य नामों का स्तवन करने लगे। नारायण प्रसन्न हुए और सबको इस समस्या से मुक्ति दिलाने का आश्वासन देते हुए हिरण्यकशिपु के वध का संकल्प लिया। अपनी माया से उसकी पत्नी कयाधू के गर्भ में स्थित पुत्र को देवऋषि नारद द्वारा ओम नमो नारायणाय के मन्त्र श्रवण करा कर गर्भ में ही शिशु को नारायण भक्त बना दिया, जो जन्म लेने के समय से ही विष्णु भक्त प्रहलाद के नाम से विख्यात हुआ। अपने ही पुत्र को ओम नमो नारायणाय का जप करते देख पिता हिरण्यकशिपु अति क्रोधित हुआ। प्रहलाद को विष्णु भक्ति त्यागने के लिए बहुत समझाया, यातनाएं देने लगा, किन्तु प्रहलाद किंचित मात्र भी विचलित नहीं हुआ। फिर उसने प्रहलाद को समुद्र में फिकवा दिया, जहां बालक प्रहलाद को विष्णु के दर्शन हुए। मृत्यु हेतु तरह-तरह के वध के षड्यंत्रों से प्रहलाद के बच जाने के कारण सभी दैत्य स्तब्ध रह जाते। अंतत: जब स्वयं वह अपने पुत्र भक्तिअवतार प्रहलाद को चंद्रहास तलवार से मारने दौड़ा तो क्रोधातुर होकर चिल्लाया, अरे मूर्ख! कहां है तेरा विष्णु? कहां है तेरा विष्णु? बोल तुझे बचा ले। तू कहता है कि वो सर्वत्र है तो दिखाई क्यों नहीं देता। पास के खम्भे की ओर इशारा करते हुए बोला कि क्या इस खम्भे में भी तेरा विष्णु है?
 
  पिता के द्वारा ऐसी बातें सुन कर प्रहलाद ने परमेश्वर का ध्यान किया और कहा कि हां पिता जी इस खम्भे में भी विष्णु हैं। उस दैत्य ने कहा, मैं इस खम्भे को काट देता हूं! जैसे ही हिरण्यकशिपु ने खम्भे पर तलवार चलायी, भगवान् विष्णु नरसिंह अवतार के रूप में प्रकट हो गए। इनमें संसार की समस्त शक्तियों का दर्शन हो रहा था। प्रभु ने पलभर में दैत्यसेना का संहार कर दिया। नारायण के आधे मनुष्य और आधा सिंह शरीर देख कर असुरों में खर, मकर, सर्प, गिद्ध, काक, मुर्गे और मृग जैसे मुख वाले राक्षस अपनी योनियों से मुक्ति पाने के लिए प्रभु के हाथों मरने के लिए आगे आ गये और वधोपरांत राक्षस योनि से मुक्त हो गए। अंत मे हिरण्यकशिपु भी युद्ध के लिए आया। उस समय समस्त जगत अन्धकार में लीन हो गया। 
 
भगवान नरसिंह ने ब्रह्मा जी के वरदान का मान रखते हुए सायंकालीन प्रदोष वेला में अपनी जंघा पर रख कर उसका हृदय विदीर्ण कर देवताओं और मानवजाति को दैत्य के भय से मुक्त कर दिया। कश्यप पत्नी दिति के दोनों पुत्रों हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के वध के लिए भगवान् को वाराह और नरसिंह अवतार लेने पड़े। इनकी आराधना हमें भयमुक्त करते हुए भक्ति मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती है।

टिप्पणियाँ

  1. देवभूमि की संस्कृति को अच्छे से संजोया है। नरसिंह देवता के बारें में जानकारी देने के लिए ध्यानवाद। नरसिंह देवता के बारें में

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