दिशा संकेतक, बोध कराने वाला गुरु : जे. कृष्णमूर्ति



दिशा संकेतक, बोध कराने वाला गुरु : जे. कृष्णमूर्ति


सबसे पहली बात तो यह है कि हम गुरु चाहते ही क्यों हैं? हम कहते हैं कि हमें एक गुरु की आवश्यकता है। क्योंकि हम भ्रांति में हैं और गुरु मददगार होता है। वह बताएगा कि सत्य क्या है। वह समझने में हमारी सहायता करेगा। वह जीवन के बारे में हमसे कहीं अधिक जानता है। वह एक पिता की तरह, एक अध्यापक की तरह जीवन में हमारा मार्गदर्शन करेगा। उसका अनुभव व्यापक है और हमारा बहुत कम है। वह अपने अधिक अनुभव के द्वारा हमारी सहायता करेगा आदि-आदि।

सबसे पहले हम इस विचार की परीक्षा करें कि क्या कोई गुरु हमारी अस्त-व्यस्तता को, भीतरी गड़बड़ी को समाप्त कर सकता है? क्या कोई भी दूसरा व्यक्ति हमारी दुविधा को दूर कर सकता है? दुविधा, जो कि हमारी ही क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं का फल है। हम ने ही उसे रचा है। अंदर और बाहर, अस्तित्व के सभी स्तरों पर होने वाले इस क्लेश को, इस संघर्ष को, आप क्या समझते हैं कि इसे किसी और ने उत्पन्न किया है? यह हमारे ही अपने आपको न जानने का नतीजा है। हम अपने को गहराई से नहीं समझते। अपने द्वंद्व, अपनी प्रतिक्रियाएं, अपनी पीड़ाएं इन सब को नहीं समझ पाते। और इसलिए हम किसी गुरु के पास जाते हैं, यह सोचकर कि वह इस दुविधा, इस अस्त-व्यस्तता से बाहर निकलने में हमारी सहायता करेगा। वर्तमान से अपने संबंध में ही हम स्वयं को समझ सकते हैं और संबंध ही गुरु है, न कि बाहर कोई व्यक्ति। यदि हम संबंध को नहीं समझते, तो गुरु चाहे जो भी कहता रहे व्यर्थ है। क्योंकि यदि मैं इस संबंध को नहीं समझ पाता हूं, संपत्ति के साथ अपने संबंध को, व्यक्तियों और विचारों के साथ अपने संबंध को, तो मेरे भीतर के द्वंद्व को दूसरा और कौन सुलझा सकता है? इस द्वंद्व को, इस अस्पष्टता को दूर करने के लिए आवश्यक है कि मैं स्वयं इसे जानूं-समझूं, जिसका अर्थ है कि संबंधों में स्वयं के प्रति जागरूक रहूं और जागरूक रहने के लिए किसी गुरु की आवश्यकता नहीं है।

यदि मैं स्वयं को नहीं जानता, तो गुरु किस काम का! जिस तरह एक राजनीतिक नेता का चुनाव उन लोगों के द्वारा किया जाता है जो भ्रांत हैं और इसीलिए उनका चुनाव भी भ्रांतिपूर्ण होता है। उसी तरह मैं गुरु चुन लिया करता हूं। मैं केवल अपने विभ्रम के तहत उसका चयन करता हूं। अत: राजनीतिक नेता की तरह, गुरु भी भ्रांत    होता है। क्या सत्य दूसरे के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है? कुछ कहते हैं कि किया जा सकता है और कुछ कहते हैं कि नहीं किया जा सकता। हम इसकी सच्चाई को जानना चाहते हैं, यह नहीं कि किसी दूसरे की तुलना में मेरा मत क्या है। इस विषय में मेरा कोई मत नहीं है। या तो गुरु आवश्यक है, या फिर नहीं है। अत: आपके लिए गुरु स्वीकार करना आवश्यक है या नहीं, यह कोई आपकी या मेरी राय का प्रश्न नहीं है। किसी भी बात की सच्चाई किसी की राय पर निर्भर नहीं करती, चाहे वह राय कितनी भी गंभीर, विद्वत्तापूर्ण, लोकप्रिय और सार्वभौमिक क्यों न हो।

सच्चाई को तो वास्तव में ढूंढ निकालना होता है। महत्त्व इस बात का नहीं कि सही कौन है। मैं ठीक हूं या वे व्यक्ति जो कहते हैं कि गुरु आवश्यक हैं। महत्त्वपूर्ण यह पता लगाना है कि आपको गुरु की आवश्यकता ही क्यों पड़ती है। तमाम तरह के शोषण के लिए गुरु हुआ करते हैं, लेकिन यहां वह मुद्दा अप्रासंगिक है। यदि आपको कोई बताए कि आप उन्नति कर रहे हैं, तो आपको बड़ा संतोष होता है। परंतु यह पता लगाना कि आपको गुरु की दरकार क्यों होती है, वही असली बात है। कोई आपको दिशा-संकेत दे सकता है, पर काम तो सारा आपको खुद ही करना होता है, भले ही आपका कोई गुरु भी हो। चूंकि आप यह सब नहीं करना चाहते, आप इसकी जिम्मेदारी गुरु पर छोड़ देते हैं। जब स्व का अंशमात्र भी बोध होने लगे, गुरु का उपयोग नहीं रह जाता। कोई गुरु, कोई पुस्तक अथवा शास्त्र आपको स्वबोध नहीं दे सकता। यह तभी आता है जब आप संबंधों के बीच स्वयं के प्रति सजग होते हैं। होने का अर्थ ही है संबंधित होना। संबंध को न समझना क्लेश है, कलह है। अपनी संपत्ति के साथ अपने संबंध के प्रति जागरूक न होना विभ्रम के, दुविधा के अनेक कारणों में से एक है। यदि आप संपत्ति के साथ अपने सही संबंध को नहीं जानते, तो द्वंद्व अनिवार्य है, जो कि समाज के द्वंद्व को भी बढ़ाएगा। यदि आप अपने और अपनी पत्नी के बीच, अपने और अपने पुत्र के बीच संबंध को नहीं समझते, तो उस संबंध से पैदा होने वाले द्वंद्व का निराकरण कोई दूसरा कैसे कर सकता है? यही बात विचारों, विश्वासों आदि पर लागू होती है।

व्यक्तियों के साथ, संपत्ति के साथ, विचारों के साथ अपने संबंध के बारे में स्पष्टता न होने के कारण आप गुरु खोजते हैं। यदि वह वस्तुत: गुरु है, तो वह आपको स्वयं को समझने के लिए कहेगा। सारी गलतफहमी तथा उलझन की वजह आप ही हैं, और आप इस द्वंद्व का समाधान तभी कर पाएंगे जब  आप स्वयं को पारस्परिक संबंध के बीच समझ लें।

आप किसी दूसरे के माध्यम से सत्य को नहीं पा सकते। ऐसा आप कैसे कर सकते हैं? सत्य कोई स्थैतिक तत्व,
जड़ चीज नहीं है। उसका कोई निश्चित स्थान नहीं है। वह कोई साध्य, कोई लक्ष्य नहीं है, बल्कि वह तो सजीव, गतिशील, सतर्क, जीवंत है। वह कोई साध्य कैसे हो सकता है? यदि सत्य कोई निश्चित बिंदु है, तो वह सत्य नहीं है, तब वह मात्र एक विचार या मत है। सत्य अज्ञात है और सत्य को खोजने वाला मन उसे कभी न पा सकेगा, क्योंकि मन ज्ञात से बना है। यह अतीत का, समय का परिणाम है। इसका आप स्वयं निरीक्षण कर सकते हैं। मन ज्ञात का उपकरण है। अत: वह अज्ञात को प्राप्त नहीं कर सकता। उसकी गति केवल ज्ञात से ज्ञात की ओर है।
जब मन सत्य को खोजता है, वह सत्य, जिसके विषय में उसने पुस्तकों में पढ़ा है, तो वह 'सत्य' आत्म-प्रक्षिप्त होता है। क्योंकि तब मन किसी ज्ञात का, पहले की अपेक्षा अधिक संतोषजनक ज्ञात का अनुसरण मात्र करता है। जब मन सत्य खोजता है, तो वह अपने ही प्रक्षेपण खोज रहा होता है, सत्य नहीं। अंतत: आदर्श हमारा ही प्रक्षेपण होता है, वह काल्पनिक, अयथार्थ होता है। 'जो है' वही यथार्थ है, उसका विपरीत नहीं। परंतु वह मन जो यथार्थ को खोज रहा है, ईश्वर को खोज रहा है, वह ज्ञात को ही खोज रहा है। जब आप ईश्वर के बारे में सोचते हैं, आपका ईश्वर आपके अपने विचार का प्रक्षेपण होता है। सामाजिक प्रभावों का परिणाम होता है। आप केवल ज्ञात के विषय में ही सोच सकते हैं।

अज्ञात के विषय में नहीं, आप सत्य पर एकाग्रता नहीं साध सकते। जैसे ही आप अज्ञात के बारे में सोचते हैं, वह केवल आत्म-प्रक्षिप्त ज्ञात ही होता है। ईश्वर या सत्य के बारे में सोचा नहीं जा सकता। यदि आप उसके बारे में सोच लेते हैं, तो वह सत्य नहीं है। सत्य को खोजा नहीं जा सकता। वह आप तक आता है। आप केवल उसी के पीछे दौड़ सकते हैं, जो ज्ञात है। जब मन ज्ञात के परिणामों से उत्पीडि़त नहीं होता, केवल तभी सत्य स्वयं को प्रकट कर सकता है। सत्य तो हर पत्ते में, हर आंसू में है। उसे क्षण-क्षण में जाना जाता है। सत्य तक आपको कोई नहीं ले जा सकता, और यदि कोई आपको ले भी जाए, तो वह यात्रा केवल ज्ञात की ओर ही होगी।
सत्य का आगमन केवल उसी मन में होता है, जो ज्ञात से रिक्त है। वह उस अवस्था में आता है, जब ज्ञात अनुपस्थित है, कार्यरत नहीं है। मन ज्ञात का भंडार है, वह ज्ञात का अवशेष है। उस अवस्था में होने के लिए, जिसमें अज्ञात अस्तित्व में आता है, मन को अपने प्रति, अपने चेतन तथा अचेतन अतीत के अनुभवों के प्रति, अपने प्रत्युत्तरों, अपनी प्रतिक्रियाओं एवं संरचना के प्रति जागरूक होना होगा। स्वयं को पूरी तरह से जान लेने पर ज्ञात का अंत हो जाता है, मन ज्ञात से पूर्णतया रिक्त हो जाता है। केवल तभी, अनामंत्रित ही, सत्य आप तक आ सकता है। सत्य न तो आपका है, न मेरा। आप इसकी उपासना नहीं कर सकते। जिस क्षण यह ज्ञात होता है, अयथार्थ ही होता है। प्रतीक यथार्थ नहीं है, छवि या प्रतिमा यथार्थ नहीं है; किंतु जब स्व की समझ होती है, स्व का अंत होता है, तब शाश्वत का आविर्भाव होता है।

अत: मूल बात यह है कि आप किसी गुरु के निकट जाते ही इसलिए हैं क्योंकि आप भ्रांत होते हैं। अगर आप अपने आप में स्पष्ट होते, तो आप किसी गुरु के पास न जाते। इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि आप अपने रोम-रोम में खुश होते, यदि समस्याएं न होतीं, यदि आपने जीवन को पूर्णतया समझ लिया होता, तो आप किसी गुरु के पास न जाते। मुझे उम्मीद है कि आप इसके तात्पर्य को देख पा रहे हैं। चूंकि आप भ्रांत हैं, आप गुरु की खोज में हैं। आप उसके पास जाते हैं, इस उम्मीद के साथ कि वह आपको जीने की राह बताएगा, आपकी उलझनों को दूर कर देगा और आपको सत्य की पहचान कराएगा। आप किसी गुरु का चयन करते हैं क्योंकि आप भ्रांत हैं और आस लगाते हैं कि आप जो चाहते हैं वह गुरु आपको देगा। आप एक ऐसे गुरु को स्वीकार करते हैं जो आपकी मांग को पूरा करे। गुरु से मिलने वाली परितुष्टि के आधार पर ही आप गुरु को चुनते हैं और आपका यह चुनाव आप की तुष्टि पर ही आधारित होता है। आप ऐसे गुरु को नहीं स्वीकार करते जो कहता है, 'आत्म-निर्भर बनें'। अपने पूर्वग्रहों के अनुसार ही आप उसे चुनते हैं। चूंकि आप गुरु का चयन उस परितुष्टि के आधार पर करते हैं जो वह आपको प्रदान करता है, तो आप सत्य की खोज नहीं कर रहे हैं, बल्कि अपनी दुविधा से बाहर निकलने का उपाय ढूंढ रहे हैं, और दुविधा से बाहर निकलने के उस उपाय को ही गलती से सत्य कह दिया जाता है।

टिप्पणियाँ

इन्हे भी पढे़....

हमारा देश “भारतवर्ष” : जम्बू दीपे भरत खण्डे

हमें वीर केशव मिले आप जबसे : संघ गीत

सेंगर राजपूतों का इतिहास एवं विकास

कांग्रेस की हिन्दू विरोधी मानसिकता का प्रमाण

खींची राजवंश : गागरोण दुर्ग

चंदन है इस देश की माटी तपोभूमि हर ग्राम है

भाजपा का संकल्प- मोदी की गारंटी 2024

हम भाग्यशाली हैं कि मोदी जी के कार्यकाल को जीवंत देख रहे हैं - कपिल मिश्रा

रामसेतु (Ram - setu) 17.5 लाख वर्ष पूर्व

नेशन फस्ट के भाव से सभी क्षेत्रों में अपनी अग्रणी भूमिका निभाएं - देवनानी